बुधवार, 18 मार्च 2009

मेला

मेले का नाम सुनते ही आपके दिमाग में सबसे पहली चीज़ क्या आती है? झूले ,हस्तशिल्प ,लोकगीत ,लोकनृत्य,खाने पीने की तमाम चीजे़?सही भी है मेलों का मतलब ही यही होता है जहाँ यह सब चीजे़ एक साथ देखने को मिलती है।मेले में यही सब चीजे़ सबको अपनी ओर आकर्षित करती है।मगर मैं आन सभी को एक ऐसे मेले के बारे में बताने जा रही हूँ जहाँ यह सभी चीजे़ होगी मगर आकर्षण का केंद्र नहीं।जी हाँ, यह मेला है उŸारी बिहार में गंगा और गंडक नदी के किनारे लगने वाला सोनपुर मेला।यह मेला हर साल नंवबर महीने की पांच-छह तारीख से कार्तिक पूर्णिमा पर लगता है जो कि पूरे महीने चलता है। सोनपुर मेले की खासियत है यहां बिकने वाले पशु।सह न केवल बिहार का सबसे प्रसिद्ध और पुराना मेला है बल्कि एशिया का भी पुराना, प्रसिद्ध और सबसे बड़ा पशु मेला है। इस मेले के कई एतिहासिक पहलु भी है। माना जाता है कि चंद्रगुप्त मौर्य पाटलिपुत्र (पटना) से गंगा पार करके यहां हाथी और घोड़े खरीदने आता था। वहीं अंग्रेजी ‘ाासन के दौरान अफगानिस्तान और ब्रिटेन से अनकों व्यापारी इस मेले में आया करते थे। इस मेले की धार्मिक महत्ता भी है। यहां हरिहर नाथ मंदिर है। कहा जाता है कि लंका जाते समय भगवान राम ने इस मंदिर की स्थापना की थी। लोगों की मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन यहां स्नान करने से 100 गांवो के दान का पुण्य लगता है। सोन पुर मेले के विशेषता यह है कि यहां छोटे से लेकर बड़े सभी प्रकार के पशु पक्षी बेचने के लिए रखे जाते है। सभी नस्लों के कुत्तों से लेकर ऊंट, भैंस, गधे, बंदर, पर्शियन, घोड़े, भेड़े, खरगोश, भालू, बिल्ली से लेकर और भी बहुत सी तरह के पशु आज यहां से खरीद सकते है। इसके अलावा यदि आपकी दिलचस्पी तरह तरह के रंग बिरंगे पक्षियों में है तो वह भी यहां उपलब्ध होते है। पूरे विश्व में यही एक ऐसी जगह है जहां पर एक बड़ी संख्या में हाथी बेचे जाते है। इन्हें मुख्यतः वन विभाग के लोगों द्वारा अधिक खरीदा जाता है। यह न केवल एशिया का बल्कि बहुत हद तक विश्व का भी सबसे बड़ा पशु मेला है यह तो हुई मेले में मुख्य आकर्षण की बात।
अब बात करते है मेले के कुछ दूसरी मेले के कुद दूसरी खासियतों के बारे में। यहां पर हस्तशिल्प, पेंटिंग्स और तरह तरह के मिट्टी के बने अनकों सामान भी मिलते है। घर मे रोजमर्या की जरुरतों में प्रयोग होने वाले सामानों के साथ ही ब्रांडेड कपड़े आदि भी यहां से खरीद सकते है। हाल ही के कुद सालों से सरकार अलग अलग कंपनियां अपने उत्पादो ंके प्रचार के लिए इस मेले में अपनी दुकानें लगानें लगे है। इतना ही नहीं मेले में लाए गए सभी पशुओं घासकर हााथयों के स्वास्थय के लिए कैंप भी लगाए जाते है। तो है न यह मेला अपने आप में बिल्कुल अलग, जहां पारंपरिक मेलों से हटकर कूछ और भी देखने को मिलता है। बस यही खारियत है इस मेले की जो कि इसे बाकि सभी मेलों से अलग करती है। जहां आकर्षण का मुख्य केंद्र कुछ और नहीं बल्कि तरह तरह के पशु पक्षी होते है।

कच्ची सड़क के पार असली हिंदुस्तान

गाँधी जी के बलिदान दिवस पर नई दिल्ली स्थित भारतीय जनसंचार संस्थान के हिंदी विभाग की ओर से एक गोष्ठी का आयोजन किया गया।जिसमें मुख्य वक्ता के रुप में गांधी स्मारक निधि के सचिव रामचंद्र राही और गांधीवादी कार्यकर्ता देवदत मौजूद थे। आज का समय ,पत्रकारिता और गाँधी विषय पर बोलते हुए राही ने कहा की बापू ने समाज के अंतिम आदमी की बेहतरी को भारत के नवनिर्माण और विकास की कसौटी माना था। जबकि आज अखबारों से यह बात गायब हो चुकी है।मीड़िया जगत समाज के उपेक्षित वर्ग की बात नहीं करना चाहता वह केवल उन 20 फीसदी तबके की बात करता है जो की प्रभावशाली है।दोहरी जिंदगी जीने के सिलसिले को आज समाज में विकास की दौड़ का हिस्सा माना जाता है।उन्होनें कहा कि समस्याओं को जानना और उससे जूझने का ज़ज्बा पैदा करना ही एक पत्रकार की जिम्मेदारी है। इस मौके पर गाँधीवादी कार्यकर्ता देवदत ने समाज को समझने के लिए पक्की सड़क को पार कर पगडंड़ियों से आगे जाने की जरुरत पर जोर दिया।उन्होनें कहा कि खुद को समाज से अलग करके हम समाज को नहीं समझ सकते।सही विचारों को जनता के बीच लाना एक पत्रकार का काम है।गोष्ठी की शुरुआत से पहले विभाग के दो लेब जर्नल “दिल्ली मेल” और ””दिल्ली एक्सप्रेस‘‘ का विमोचन भी किया गया।संगोष्ठी का सचांलन विभागाध्यक्ष डॉ आनंद प्रधान ने किया।

मेला

मेले भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग रहे हैं। यदि मेले शब्द को ध्यान से पढ़ा और सुना जाए तो इसका अर्थ निकलता है मेल यानि मेल मिलाप। मेलों का शुरू से ही अपना एक अलग महत्व रहा है। यदि गौर किया जाए तो सभी मेलों में एक बात समान दिखाई पड़ती है। सभी मेले चाहे वह भारत के किसी भी कोने में मनाए जाते हों। पंजाब में गेहूं की फसल कटने के बाद बैसाखी का मेला लगता है तो असम में बीहू और दक्षिण में ओणम और पोंगल मनाए जाते हैं। मेले ना केवल सामाजिक और सांस्कृतिक बल्कि आर्थिक रुप से भी काफी महत्वपूर्ण हुआ करते थे। यदि मेलों के इतिहास में जाए तो पता चलता है कि पहले मेले मेल मिलाप का एक जरिया हुआ करते थे। पहले बाज़ार नही होते थे जहां किसी भी वक्त जाओ और अपना सामान खरीद लाओ। रोज़मर्रा के काम आने वाली वस्तुओं के लिए इन्हीं मेलों का इतंजा़र किया जाता था। पूरी अर्थव्यवस्था लगभग इन्हीं मेलों से ही चलती थी। लेकिन मौजूदा दौर में लगने वाले मेलों का न केवल स्वरुप बदल गया है बल्कि उनका उदेश्य भी बदल गया है। आज मेले जरुरत की नहीं बल्कि सैर सपाटे का केंद्र मात्र बनकर रह गए है। आज मेले एक ऐसा बाजा़र बनकर रह गए है जिनका उदेश्य सिर्फ लाभ कमाना होता है। इसका एक उदाहरण है मेलों में लगातार बढ़ती विदेशी कंपनियो की भागीदारी। चाहे वह सूरजकुंड मेला हो या फिर प्रगति मैदान में लगने वाले तमाम मेले ऐसे सभी मेलो में बिकने वाले सामान आम आदमी की खरीद से बाहर ही होते है। आज के मेले अपने मौलिक रुप से भटक से गए हैं। जिनके कारण कहीं ना कहीं यह अपने महत्व को भी धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं।