बुधवार, 18 मार्च 2009

मेला

मेले भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग रहे हैं। यदि मेले शब्द को ध्यान से पढ़ा और सुना जाए तो इसका अर्थ निकलता है मेल यानि मेल मिलाप। मेलों का शुरू से ही अपना एक अलग महत्व रहा है। यदि गौर किया जाए तो सभी मेलों में एक बात समान दिखाई पड़ती है। सभी मेले चाहे वह भारत के किसी भी कोने में मनाए जाते हों। पंजाब में गेहूं की फसल कटने के बाद बैसाखी का मेला लगता है तो असम में बीहू और दक्षिण में ओणम और पोंगल मनाए जाते हैं। मेले ना केवल सामाजिक और सांस्कृतिक बल्कि आर्थिक रुप से भी काफी महत्वपूर्ण हुआ करते थे। यदि मेलों के इतिहास में जाए तो पता चलता है कि पहले मेले मेल मिलाप का एक जरिया हुआ करते थे। पहले बाज़ार नही होते थे जहां किसी भी वक्त जाओ और अपना सामान खरीद लाओ। रोज़मर्रा के काम आने वाली वस्तुओं के लिए इन्हीं मेलों का इतंजा़र किया जाता था। पूरी अर्थव्यवस्था लगभग इन्हीं मेलों से ही चलती थी। लेकिन मौजूदा दौर में लगने वाले मेलों का न केवल स्वरुप बदल गया है बल्कि उनका उदेश्य भी बदल गया है। आज मेले जरुरत की नहीं बल्कि सैर सपाटे का केंद्र मात्र बनकर रह गए है। आज मेले एक ऐसा बाजा़र बनकर रह गए है जिनका उदेश्य सिर्फ लाभ कमाना होता है। इसका एक उदाहरण है मेलों में लगातार बढ़ती विदेशी कंपनियो की भागीदारी। चाहे वह सूरजकुंड मेला हो या फिर प्रगति मैदान में लगने वाले तमाम मेले ऐसे सभी मेलो में बिकने वाले सामान आम आदमी की खरीद से बाहर ही होते है। आज के मेले अपने मौलिक रुप से भटक से गए हैं। जिनके कारण कहीं ना कहीं यह अपने महत्व को भी धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं।

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